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पल भर के लिए / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
पल भर के लिए
नहीं थी उनके लिए
कोई टाट की झोपड़ी
या फूस-मूंजों के घोंसले
वे पंछी नहीं थे
या, कोई पेड़-पौधे
हल जोतकर लौटते हुए मजदूर थे
टूट-बिखर कर गिरते हैं
जैसे पुआलों के छज्जे
ध्माकों से उसी तरह
वे पसर गये थे
पोखरे के किनारे पर
ओह! पल भर के लिए
ईख में के छुपे दैत्य
बंद कर दिये होते अपनी बंदूक
वे कुछ भी हो गये होते
आंधी-पानी या खर-पात
जरा-सा के लिए भी
अगर छा गया होता धुंध्लका