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पाती तक न पठाई / गोपालदास "नीरज"
Kavita Kosh से
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बरखा गई मिलन-ऋतु बीती,
घोर घटा घहरी मन-चीती,
पर गागर रीती की रीती,
अधरों बूंद न आई
प्यास से प्यास बुझाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
रोज़ उड़ाए काग सवेरे,
रोज़ पुराये चौक-घनेरे,
कभी अँधेरे, कभी उजेरे,
पथ-पथ धूल रमाई,
हुई सब लोक हँसाई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
बहकी बगियाँ, महकी कलियाँ
गूंजे आँगन, झूमीं गलियाँ,
खुलीं न मेरी किन्तु किवरियाँ,
साँकल कौन लगाई
कि खोलत उमर सिराई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।
मन की कुटिया सूनी-सूनी,
देह बनी चन्दन की धूनी,
बहुत हुई प्रिय ! आँख-मिचौनी,
अब तो हो सुनवाई
सुबह संध्या बन आई।
ऐसी सुधि बिसराई
कि पाती तक न पठाई।