भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी का दावा / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
ऊपर सड़क सुरंगें नीचे
अनपढ़ बैठे आँखें मींचे
धरती पर पानी का दावा
सुनता रहा भूमिगत लावा
लावे की कानाफूसी को
सिर्फ़ जानते बाग़-बग़ीचे
जड़ें नहीं हैं जिनकी गहरी
उनकी दुनिया गूँगी-बहरी
यह अँधी ज़िन्दगी, बिछाने में
बीतेगी दरी-गलीचे
अनपढ़ बैठे आँखें मींचे