भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रियतम / रामनरेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सोकर तूने रात गँवाई।
आकर रात लौट गए प्रियतम
तू थी नींद भरी अलसाई।
रहकर निपट निकट जीवन भर
प्रियतम को पहचान न पाई।
यौवन के दिन व्यर्थ बिताए
प्रियतम की न कभी सुध आई।
कभी न प्रियतम से हँस बोली
कभी न मन से सेज बिछाई।
आज साज सज सजनी कर तू
प्रियतम की मन भर पहुँनाई।
अब की बिछुड़े फिर न मिलेंगे
कर ले अपनी आज भलाई।
भर भर लोचन धो घर बाहर
बाट बुहार अगोर अवाई।