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प्रेम स्मृति-1 / समीर बरन नन्दी

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मै अब वैसा बिलकुल नहीं, जब
काग़ज़ का हवाई जहाज़ बनाकर
मै अपने को उड़ा देता था -- तुम्हारी ओर ।

फिर चक्कर.. चक्कर... चक्कर खा कर
चक्कर खा कर तुम्हारी छाती पर
मुँह के बल टकराकर गिर जाता था ।

और सचमुच मुझे कोई चोट नहीं लगती थी...
और अब.....