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बजा हुआ शंख / विशाल
Kavita Kosh से
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एक दिन मैंने उससे कहा
कि मुझे तेरा कांधा चाहिए
तो उसने कहा-
‘बात कहने के लिए
तुझे शब्दों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’
और फिर एक दिन आई
और कहने लगी-
‘हवा में तैरती उंगलियों को मैं क्या समझूँ
अपने रिश्ते का कोई नाम ही रख दे!’
प्रत्युत्तर में मैंने कहा-
‘समझने के लिए
तुझे अर्थों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’
वह इतनी ज़ोर से हँसी कि मुझे लगा
कहीं रो ही न दे
उसने हँसते-हँसते कहा-
‘मूर्ख है निरा तू भी
और मैं भी किसी पगली से कम नहीं!’
मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव