भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बढ़ते चलो / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
राह पर बढ़ते चलो !
दूर मंज़िल है तुम्हारी,
पर, क़दम होंगे न भारी,
आज तक युग की जवानी ने कभी हिम्मत न हारी !
आँधियों से जूझनेवालों !
निडर हँस-हँस प्रखर बढ़ते चलो !
बल अमिट विश्वास का है,
बल अतुल इतिहास का है,
बल अथक भावी जगत में फिर नये मधुमास का है,
ओ युवक ! निज रक्त से नव-दृढ़
इमारत विश्व में गढ़ते चलो !
तम बिखरता जा रहा है,
नव सबेरा आ रहा है,
सृष्टि का कण-कण सृजन का गीत अभिनव गा रहा है,
इसलिए तुम भी
नये युग की प्रतिष्ठा के लिए लड़ते चलो !
1952