भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाज़ूबन्ध की कविता-4 / एकराम अली
Kavita Kosh से
फुंसी हुई है
उसकी तकलीफ़ आँचलिक रूप से
व्याप गई है देह में
समग्र अंचल में नहीं
एक छोटे-से हिस्से में
हालाँकि नक्षत्रों की देह पर
समग्र ताप से
विकारजन्य नीली फुंसियाँ
स्वभावतः जनमती हैं
यह देह तारे का अंश है -- कृत्तिका, कृत्तिका!
नानाविध नैसर्गिक धातुओं के क्षरण से
जलती है अग्निशिखा
तारों को देखो
देखो और ढूँढ़ो कि नए में तुम कौन-से हो
घावों और तकलीफ़ों को दबाकर
बचे रहने की नवीनतर निपुणता
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी