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बात / प्रेमशंकर रघुवंशी

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मुँह से निकली बात
और वह
हवा सरीखी सरपट भागी
जा पहुँची
बाँसों के वन में !

रोकूँ टोकूँ तब तक
वह तो
लपट उठती दावानल-सी
फैल गई-
पूरे कानन में !!