भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भग्न प्रतिमा / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ मेरे जीवन के वृक्ष को
काटने वाली कुल्हाड़ियो!
ओ मेरे विश्वासों की चट्टानें
काटने वाली लहरियो!
ओ मेरे ईश्वर की प्रतिमा को
तोड़ने वाली हथौड़ियो!

यह न समझना
कि मैं तुमसे नाराज हूँ;
मैं तो तुम्हारा
बहुत-बहुत आभारी हूँ,
क्योंकि इस जीवन के
सूखते वृक्ष को

हिलते विश्वासों की
गलती चट्टानों को
तुम जो रहे हो काट
ईश्वर की भग्न हुई प्रतिमा को
तुम जो रहे हो तोड़,
इसमें ही
मेरी
मेरे देश
और दुनिया की
सब की भलाई है।

इसलिए कि
उसी टूटने में, तुड़ने में से,
नूतन जीवन के नये पौधों के
नये-नये अंकुर स्वस्थ फूटेंगे,
नूतन विश्वासों के हिमगिरि के
नये-नये स्वर्ण-शिखर चमकेंगे;
नये ईश्वर की नयी प्रतिमा के
रूप-रंग-भाव नये निखरेंगे।

3.12.76