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भूल हो गई / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
पैर जमे होते धरती पर
तो मैं आसमान छू आता।
लेकिन मुझसे भूल हो गई
उड़ता ही मैं रहा गगन में;
बैठ कल्पना के पंखों पर
होता रहा मगन मन-मन में।
भर लेता पूरी उड़ान यदि
पहले अपनी धरती पर ही
उठता वेग-शक्ति भर अंदर
तो मैं सूरज को छू आता।1।
पहले तो मेरे जीवन के
चिंतन का था ठोस धरातल;
किंतु हवा के महल बनाने
लगा, हो गया जब मैं दुर्बल।
होना था जो हुआ वही, ढह
गया महल, बस नींव बच गई;
उसी नींव पर भी टिकता तो
चाँद-सितारों को छू आता।2।
सत्य यथार्थ, किंतु उसमें कुछ
कुछ कुरूपता भी होती है;
उसे बनाने शिव, सुंदरता
भी उसको देनी होती है।
अतः सत्य-शिव-सुंदर तक की
ऊँचाई तक ही उड़ कर मैं
डुबकी लगा उतरता भू पर
जीवन-सिंधु-सतह छू आता।3।
11.7.89