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मन महुए-सा / देवेन्द्र आर्य
Kavita Kosh से
तुमसे मिलकर कौन सी बातें करनी थीं, मैं भूल गया,
शब्द चाँदनी जैसे झर गए, मन महुए-सा फूल गया ।
तुमने एक ओरहना क्या भेजवाया मिलने का,
अपनी ख़ुशी छिपा लेने का मेरा एक उसूल गया।
बचपन से बचपन टकराया, गंध उडी चिंगारी-सी,
मैं अपने ही कंधे पर अपने बेटे सा झूल गया ।
जैसे औरत वैसे पानी, धीरे-धीरे रिसता है,
पानी में रहते रहते पत्थर भी एक दिन फूल गया ।
दोनों प्यार के राही थे, गलबहियाँ थीं दीवाने थे,
एक सपने में झूल रहा है, एक पंखे से झूल गया ।