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मस्कवा / अनिल जनविजय

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आठों पहर
जगा रहता है
यह शहर

आतुर नदी का प्रवाह
कराहते सागर की लहर

करता है
मुझे प्रमुदित
और बरसाता है
कहर

रूप व राग की भूमि है
कलयुगी सभ्यता का महर

अज़दहा है
राजसत्ता का
कभी अमृत
तो कभी ज़हर

(2000)