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मिलन पाठ / जयप्रकाश मानस
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बिल्ली के बिल्ले
मलाई के लिए लड़झगड़ कर
कहीं अँधेरे में दुबके होंगे
चूहों की टोह में
झिंगुर
फुसुर-फुसुर कर लेते हैं
बीते दिन को कोसा जा रहा हो जैसे
चाँद छुप चुका है बादलों की गुफा में
फैल चुकी है चांदनी लबाललब
देह-कक्ष में
एक पी जाना चाहता है उसे अंतिम बूँद तक
डूब-डूब जाना चाहता है
गहराई के सभी क्षितिजों में
एकबारगी बगरकर
मिट-मिट जाना चाहती है दूसरा
रच-रच जाना चाहती है उसमें अपना
असीम विस्तार
अलग-अलग नाम से
रूप-रंग-शिल्प-व्याकरण से
उन दोनों को कोई लिख सके
क़तई संभव नहीं
इस समय तो क़तई नहीं