मुन्नू मियाँ की गली / ब्रजेश कृष्ण
मुन्नू मियाँ की गली
एक तिलिस्म थी
स्कूल जाते लड़कों के लिए
गली के मुहाने पर
बस्ती के एकमात्र
फ़ोटोग्राफ़र की दुकान थी
जहाँ अक्सर थमना चाहते थे लड़के
क्योंकि दीवार में जड़ी होने के बावजूद
वहाँ खिलखिला कर हँसती थी
एक खू़बसूरत लड़की
इसके बाद थे तमेरों के घर
जो घर और दुकान दोनों थे
बर्तनों को बनाते
और मरम्मत करते हुए
उनके हथौड़ों की टनकार
कभी नहीं टकराती थी आपस में
और गूँजती थी पूरी गली
लड़के ढूँढ़ते थे इस गूँज में
पीछे छोड़ आये लड़की की हँसी
तमेरों के ठीक बाद
गली के बीचों-बीच था
मुन्नू मियाँ का घर
और घर का ऊँचा चबूतरा
मनिहरी की सबसे बड़ी दुकान के मालिक
और बस्ती के पहले हाज़ी थे मुन्नू मियाँ
हज़ से लौटने बाद सभी ने की थी उनकी अगुवाई
क्योंकि बस्ती में उस समय तक
आल्हा गाने का चलन बाक़ी था
मुन्नू मियाँ के घर के ठीक बाद थी मस्जिद
और फिर शुरू होता था ऐसे घरों का सिलसिला
जहाँ लटकता था हर समय
सींक या टाट का पर्दा
और महकता था ज़र्दा
सिर्फ अन्दाज़ लगाते थे लड़के
और गढ़ते थे क़िस्से
कि इस समय इन घरों में
क्या गुल खिलाती हैं लड़कियाँ
इन मकानों के बाद
भक् से खुलती थी गली मैदान में
जहाँ लड़कों का स्कूल
और काँजी हाउस था आमने-सामने!
गली आधी हिन्दू थी और आधी मुसलमान
मगर लड़कों की दिलचस्पी इस बात में थी
कि यह जगह बिल्कुल निरापद थी
छिपकर सिगरेट पीने के लिए
बस्ती में मरा नहीं था
उस समय तक उम्र का लिहाज़
छिपकर सिगरेट पीने वाला लड़का
लौटता है बाइस बरस बाद गली में
गली में खड़े होकर ढूँढ़ता है वह
मुन्नू मियाँ की गली
अब नहीं हैं मुन्नू मियाँ
अब नहीं हैं तमेरे
गली में है अब भरा-पूरा बाज़ार
बाज़ार की बेशुमार चीजे़ं
गली के मुहाने पर अब भी बची है
फ़ोटोग्राफ़र की दुकान
मगर वहाँ नहीं है
दीवार में जड़ी लड़की और लड़की की हँसी।