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मुरलिया बाजी रे बाजी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मुरलिया बाजी रे बाजी।
जो जहँ जैसैं रही तहाँ तहँ तैसैं ही उठि भाजी॥
तन-मन, असन-बसन, पति-सुत-घर सब की सुधि बिसरा‌ई।
चली बेगि आतुर सरिता ज्यौं, स्याम-समुँद कौं धा‌ई॥
को‌उ काहू की बाट न जो‌ई, का‌उ‌ऐ संग न लीनी।
खिंचि चलि ग‌ई लोह-चुंबक-ज्यौं, भटू प्रेम-रँग-भीनी॥
जा‌इ मिली पिय सौं, मनभावति बस्तु अलौकिक पा‌ई।
भुक्ति-मुक्ति, मैं-मेरी सगरी हरि महँ जा‌इ समा‌ई॥