भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मेरे जैसा कुछ / सुलोचना वर्मा
Kavita Kosh से
नहीं हो पाई विदा
मैं उस घर से
और रह गया शेष वहाँ
मेरे जैसा कुछ
पेल्मेट के ऊपर रखे मनीप्लाण्ट में
मौजूद रही मैं
साल दर साल
छिपी रही मैं
लकड़ी की अलगनी में
पीछे की कतार में
पड़ी रही मैं
शीशे के शो-केस में सजे
गुड्डे-गुड़ियों के बीच
महकती रही मैं
आँगन में लगे
माधवीलता की बेलों में
दबी रही मैं
माँ के सन्दूक में सम्भाल कर रखी गई
बचपन की छोटी-बड़ी चीज़ों में
ढूँढ ली गई हर रोज़
पिता द्वारा
ताखे पर सजाकर रखी उपलब्धियों में
रह गई मैं
पूजा घर में
सिंहासन के सामने बनी अल्पना में
हाँ, बदल गया है
अब मेरे रहने का सलीका
जो मैं थी, वो नहीं रही मैं ।