भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने देखा था / प्रज्ञा रावत
Kavita Kosh से
मैंने देखा था
पिता की उन आँखों को
जो ट्रेन के रुकते ही
चल पड़ी थीं
उस पगडण्डी पर
जो पहुँचती थी
बुन्देलखण्ड कॉलेज
अच्छा हुआ जो दिन थे
तपती हुई गर्मी के
सड़कें थीं सूनी
और घरों के दरवाज़े
लगभग बन्द
वरना कैसे लौट पातीं
वो आँखें वापस
अपने भरे-पूरे संसार में।