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यह दुख / विमलेश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अँटी पड़ी है पृथ्वी की छाती
असंख्य दुःखों से
मेरे दुःख की जगह कितनी कम
जिए जा रहे हैं लोग उजले दिनों की आशा में
रोकर भी-सहकर भी
कि इस जन्म में न सही तो अगले जन्म में
सोचता हूँ इस धरती पर न होता
यदि ईश्वर का तिलिस्म
तो कैसे जीते लोग
किसके सहारे चल पाते
नहीं मिलती कोई जगह रो सकने की
जब नहीं दिखती कोई आँचल की ओट
रश्क होता है उन लोगों पर
जिनके जेहन में आज भी अवतार लेता है
कोई देवता
मन हहर कर रह जाता है
दुःख तब कितना पहाड़ लगता है।