भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यह दुख / विमलेश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँटी पड़ी है पृथ्वी की छाती
असंख्य दुःखों से
मेरे दुःख की जगह कितनी कम

जिए जा रहे हैं लोग उजले दिनों की आशा में
रोकर भी-सहकर भी
कि इस जन्म में न सही तो अगले जन्म में

सोचता हूँ इस धरती पर न होता
यदि ईश्वर का तिलिस्म
तो कैसे जीते लोग
किसके सहारे चल पाते

नहीं मिलती कोई जगह रो सकने की
जब नहीं दिखती कोई आँचल की ओट
रश्क होता है उन लोगों पर
जिनके जेहन में आज भी अवतार लेता है
कोई देवता

मन हहर कर रह जाता है
दुःख तब कितना पहाड़ लगता है।