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रह गए परदेस में / नईम
Kavita Kosh से
रह गए परदेस में वो घर बसा के,
हो गई मुद्दत नहीं बहुरे ठहाके।
रही गए।
बारहा चाहा कि अपनी रौ-रविश में,
लौट आएँ फिर समय की परवरिश में,
किंतु दुर्दिन पड़े कोई क्यों सुनेगा?
रह गए हम शर्म-सा बस कसमसा के।
साँप हों या सँपेरे हों, हमवतन ये,
आस्तीनों में रहे मेरी जतन से।
पोटली विष की कहीं तो फूटनी थी
बच न पाए जिंदगी के कोई भी हल्के इलाके।
लाभ होने की जगह घाटे हुए हम,
बच गए, गर वक्त के काटे हुए हम।
लड़ेंगे फिर, फिर महाभारत लड़ेंगे,
दक्षिणा में अँगूठे दोनों कटा के।