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रामदीन / राम सेंगर
Kavita Kosh से
ज्यों का त्यों
अब भी है काँटा
रामदीन की आँख का ।
खेत चर रहीं मेंड़
भेड़ बाड़े को रौन्द रही ।
कुतर रहा नाख़ून
पेट में बिजली कौन्ध रही ।
ऋतु बदली, पर
अभी हरा है
फोड़ा उसकी काँख का ।
बिम्ब अभी मन में
सूरज का
बना हुआ काला ।
घुसा हुआ पूरा सीने में
पूँजी का भाला ।
दबा रहेगा
कब तक जाने
यह अँगारा राख का ।
ज्यों का त्यों अब भी है काँटा
रामदीन की आँख का ।