भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूठे रहे तुम / नरेश अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम धोती और कमीज में लिपटे
हमेशा एक जैसे रहे
और जिससे प्यार किया,
उसे पता भी नहीं चला
कितना चाहते रहे तुम उसे
बहुएँ रहीं बेटी की तरह
और पूरा आस-पड़स
परिवार की तरह ।

कभी-कभी छोटी-सी बात पर
नाराज हो जाया करते थे तुम
किन्तु मनाना कितना आसान था तुम्हे
इसी सरलता में तुम्हारी महानता थी
और जिसने तुम्हे नहीं समझा,
वो अभी अधूरा था
और कितने ज्ञान की बातें करने वाले
एकाएक तुम चुप हो गये
लगा कुछ पल की यह चुप्पी है
जल्दी ही चुप्पी तोड़क़र
बातें करने लगोगे हमसे
लेकिन इस बार सचमुच रूठ गये थे तुम
इस बार मना नहीं पाये तुम्हें हम ।