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संध्या (कविता का अंश) / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
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संध्या(कविता का अंश)
तुम्हें नीर दे सकी, हाय पथिक मैं नहीं
इसी बात से कुपित न हो जाना कहीं
ढोल मंजीरे बजा, निर्झरी को जला
चली गयी सुन्दरी नीर से भरी भरी
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जाने क्यों मुख फिरा दौडकर चली गयी
निर्जन में सुन्दरी, नी से भरी-भरी
(संध्या कविता से )