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संस्कार के कीड़े / सुधा चौरसिया
Kavita Kosh से
जिया तुमने हजारों साल
जिस मिथकीय इतिहास में
रेंगता है खून में
वह तुम्हारे आज भी
निकल नहीं पायी
अभी तक तुम अपने
आदर्श ‘सीता’ के जाल से
बोल लेती हो बहुत
लिख भी लेती हो बहुत
पर झेलती हो अभी तक
उस भीषण आग को
मत भूलो
अभी तक हवा में
तैर रहे हैं पैर तुम्हारे
तुम्हारे पैरों के लिए अभी तक
धरती ठोस नहीं
ना ऊपर कोई आधार है
बस धधकती आग है
या फिर फटी धरती का आगोश...