भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुकून / संजय पुरोहित

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जलजला ही तो था जो लील गया
नभ से पाताल तक पर
पर मौत में भी
था एक सुकून ना गरदन उतरी
नफरत के खंजर से ना जले थे तुम बंद पिंजरे में
तमाशा बन कर या कि
कतार बद्ध होकर
ठांय ठांय से
धराशायी होते ना अपनी कब्र
खुदवा कर
धकेले गये
मरे अधमरे तुम ओ हिमालय के पूतों
भयावह मौत मे भी
इतना तो सुकून
था ना तुमको