भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सृजन क्षण / उद्‌भ्रान्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूर्य ने पुकारा
कल मेरी आकृति को सूर्य ने पुकारा

उजली उजली किरणें
चेहरे से फूटीं
स्वर के बन्दीगृह की
दीवारें टूटीं

शब्द ने पुकारा
कल मेरी संस्कृति को शब्द ने पुकारा

एक और ’मैं’ मेरे
भीतर से उभरा
’मेरापन’ जीवन के
हर पल पर बिखरा

बिम्ब ने पुकारा
कल मेरी प्रतिकृति को बिम्ब ने पुकारा

धड़कन में रागों की
मदिर सृष्टि डोली
सांस-सांस में, सरगम
की माया बोली

छन्द ने पुकारा
कल मेरी झंकृति को छन्द ने पुकारा