भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्वर्ग का नाला / मुकेश निर्विकार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काश! आज माँ होती!
माँ होती तो कैसा लगता!
माँ के अलभ्य,
सानिध्य-सुख
गूंगे के गुड़ जैसा
अहसास है
मेरे लिए!

पड़ोस की काकी ‘रामदुलारी’
कहा करती है, अक्सर, मुझसे:”
“बड़का तुम्हार जनमते ही
चल बसी महतारी तुमहार!
भौत भली भी बिचारी
जरूर सरग गई होगी!”

सोचता हूँ-
वहाँ भी क्या
रह पाती होगी चैन से माँ मेरी
मेरे बिना
मरते वक्त

क्या नहीं ले गई होगी
दिल में अपने
बिछुड़न की
अमिट पीड़ा!

तड़पती तो जरूर होगी
आज भी
माँ
मेरी याद में!

आखिर यह कौन है जो
अबोध बच्चो को
कर देता है अनाथ, अकस्मात
कौन छीन लेता है
मासूम बच्चों से मुंह का निबाला?
ममता की लोर और आँचल की छाव?

स्वर्ग का नाला खुदवाइए तो जरा!
माँओं के कंकाल
कुलबुला रहे है
उनमें!