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हड़बड़िया समय में / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
रात भर कविताएँ सुनने वाले
झूमते हुए श्रोता खो चुके हैं
अतीत में कहीं
बेमतलब मटरगश्ती करते हुए
दोस्तों का झुंड अब दिखाई नहीं देता
दूर-दूर तक
उत्सवों में तौल कर हँसते हुए लोग
लौट जाना चाहते हैं घरों को
रात होने से पहले
बस पकड़ने की जल्दी में
भूल जाती है माँ
जन्मदिन पर बेटी को चूमना
इस हड़बड़िया समय में
इतनी जल्दी में हैं लोग
कि वे कहीं भी आते नहीं हैं
सिर्फ जाते हुए दिखते हैं
बहुत तेज़ी से
भागते हुए पैरों के नीचे
जब लगातार बदल रही हैं
धरती की दृश्यावलियाँ
मैं कैसे बताऊँ बच्चे को
ठठा कर हँसने का मतलब