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175 / हीर / वारिस शाह

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हीर आखया रांझया कहर होया एथों उठ के चल जे चलना ई
दोवें उठ के लंबड़े राह<ref>दूर विदेश की राह</ref> पईए कोई असां ने देस ना मलना ई
जदों झुगड़े वड़ी मैं खेड़यां दे किसे असां नूं मोड़ ना घलना ई
मां बाप ने जदों वयाह दिती कोई असंा दा जोर ना चलना ई
असीं इशक दे आन मैदान रूझे<ref>व्यस्त होना</ref> बुरा सूरमे नूं रनों भजना ई
वारस शाह दे इशक फिराक दौड़े एह कटक फिर आख किस झलना ई

शब्दार्थ
<references/>