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घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं / कुमार अनिल
Kavita Kosh से
Kumar Anil (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:24, 8 दिसम्बर 2010 का अवतरण
घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं।
चिराग बनके अंधेरों में जल रहा हूँ मैं।
तेरे खयाल की उंगली पकड़ के दोस्त मेरे,
गजल की वादी में कब से टहल रहा हूँ मैं।
मैअ।र उँचा है सच का, खुलूस का माना,
मगर ये मानके खुद को ही छल रहा हूँ मैं।
न कारवां की जरूरत, न रहबरों से गरज,
जुनूने शौक में तन्हा ही चल रहा हूँ मैं।
जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं।
कभी खयाल, कभी खवाब की खलिश बनकर,
तुम्हारी नींदों में अक्सर खलल रहा हूँ मैं।
मैं इक शजर हूँ, बहारों के जश्न की खातिर,
बदन पे सब्ज ये पत्ते बदल रहा हूँ मैं।