भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इन आँसुओं से तुम अपना दामन सजा रहे थे, पता नहीं था / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:31, 11 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल |संग्रह=हर सुबह एक ताज़ा गुलाब / …)
{KKGlobal}}
इन आँसुओं से तुम अपना दामन सजा रहे थे, पता नहीं था
मुझे मिटाकर भी मेरी क़िस्मत बना रहे थे, पता नहीं था
हवा में घुँघरू से बज उठे थे, दिशाएँ करवट बदल रही थीं
किरण के घूँघट में मुंह छिपाकर तुम आ रहे थे, पता नहीं था
दिया हर उम्मीद का बुझाकर, सुला लिया अपना दिल तो हमने
मगर उन आँखों में प्यार की लौ जगा रहे थे, पता नहीं था
ये कैसी बस्ती है जिसकी हद में, गए हैं उठ-उठके लोग सारे!
सभी को मिट्टी के ये घरौंदे लुभा रहे थे, पता नहीं था
कहाँ हैं रंगों की शोखियाँ वे, कहाँ हैं अब वे बहार के दिन!
गुलाब! तुम बाग़ भर में बस एक हवा रहे थे, पता नहीं था