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रात गुज़री है यूँ चराग़ों की / कुमार अनिल

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रात गुजरी है यूं चरागों की
उम्र जैसे कटे अभागों की

दुल्हने रोज जल रही हैं यहाँ
बात मत कीजिये सुहागों की

कोकिला फँस गयी कहाँ आकर
महफ़िलें हैं ये चंद कागों की

कोई कोशिश न खोलने की करे
गुत्थियाँ हैं ये कच्चे धागों की

सब थे मशगूल फूल चुनने में
गिनतियाँ कौन करता दागों की

क्या हुआ यह भरी बहारों में
रौनके लुट रही हैं बागों की

दूध मत बेसबब पिलाओ इन्हें
फितरतें हैं अजीब नागों की