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चित्त होते हारते चले जाते हैं / केदारनाथ अग्रवाल
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चित्त होते
हारते चले जाते हैं-
एक-से-एक
पुरन्दर पहलवान,
अपने ही अखाड़े में
अपने नौसिखियों से,
अपने
दाँव-पेंच से
पछाड़े गए।
रचनाकाल: ०९-०२-१९९०