भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैला दर्पण / मालचंद तिवाड़ी
Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:52, 16 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मालचंद तिवाड़ी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}}<poem>चेचक नहीं नि…)
चेचक नहीं निकला करती
दर्पण के मुखडे पर
सिर्फ इतना हुआ था
कंघी करते समय
तुम्हारी गीली केश-राशि से उडे छींटे
पौंछ नहीं सका था मैं
यत्न करता-सा
कि इस जाली के नीचे
जस का तस मिल जाएगा तुम्हारा रूप
पडा हुआ दर्पण के अंतस में
वह मेरी भोली आशा
अब पौंछ दिया करती है
बिम्ब-प्रतिबिम्ब के कितने ही रिश्ते
क्योंकि कृतघ्न नहीं थी वह मेरी आँख
जिसने देखा था तुम्हें
देखते उस दर्पण को
निकालते समय अपने गीले केश
निथारने पर जल
सरोवर-सरोवर मिलता है चाँद
मैं खडा हूं अपने सरोवर के तीर
लिए हाथों में अपने
वही मैला दर्पण अपना
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा