भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सदस्य:Rdkamboj

Kavita Kosh से
Rdkamboj (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 18:18, 12 जून 2007 का अवतरण (New page: कवि जी पकड़े गए / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ <br> {{KKGlobal}<br> [[रामेश्वर काम्ब...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि जी पकड़े गए / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



हत्या के अभियोग में

कवि जी पकड़े गए

अति सुकोमल हाथ उनके

हथकड़ियों में जकड़े गए ।

आरोप था उन पर यह-

कवि जी पथिक को रोककर

कविता सुना रहे थे
बेहोश जब वह हो जाता

पानी छिड़ककर

उसे बार –बार

होश में ला रहे थे ।


श्वान-पीड़ित / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



जोंक जी

कई दिन से भरे हुए हैं

अपनी ही गली के कुत्तों से

बेहद डरे हुए हैं

लोगों ने समझाया-

कुत्ते जब भी चौंकते हैं ,

तभी भौंकते हैं ;

क्योंकि वे हर चोर को

उसके शरीर से निकली

गन्ध से पहचानते हैं ,

भले ही वे कुत्ते हों

आदमी को आदमी से

ज़्यादा ही जानते हैं ।

तुम्हारे मन में चोर है


तुम ईमान को खूँटी पर टाँगकर

दफ़्तर जाते हो

तभी तो गली के कुत्तों से

इतना घबराते हो ।

इस स्थिति के लिए

तुम खुद ही जिम्मेदार हो

भौंकता वही है ,

जो कुछ जानता है

जो भीड़ में घुसे चोरों को

उनकी गन्ध से पहचानता है ।

भौंकने वालों पर

लोग कब रीझते हैं ?

चोर –

हमेशा कुत्तों पर खीझते हैं ।


गाँव की चिट्ठी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


दोहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



भीगे राधा के नयन , तिरते कई सवाल ।

कभी न ऊधौ पूछता ,ब्रज में आकर हाल।।1

चिट्ठी अब आती नहीं ,रोज सोचता बाप।

जब- जब दिखता डाकिया ,और बढ़े संताप ।।2

रह रहकर के काँपते , माँ के बूढे़ हाथ ।

बूढ़ा पीपल ही बचा ,अब देने को साथ ।।3

बहिन द्वार पर है खड़ी ,रोज देखती बाट ।

लौटी नौकाएँ सभी ,छोड़- छोड़कर घाट ।।4

आँगन गुमसुम है पडा़ , द्वार गली सब मौन ।

सन्नाटा कहने लगा ,अब लौटेगा कौन ।।5

नगर लुटेरे हो गये ,सगे लिये सब छीन ।

रिश्ते सब दम तोड़ते, जैसे जल बिन मीन ।।6

रोज काटती जा रही ,सुधियों की तलवार।

छीन लिया परदेस ने, प्यार- भरा परिवार।।7

वह नदिया में तैरना , घनी नीम की छाँव।

रोज रुलाता है मुझे ,सपने तक में गाँव।।8

हरियाली पहने हुए, खेत देखते राह ।

मुझे शहर मे ले गया, पेट पकड़कर बाँह।।9


डबडब आँसू हैं भरे ,नैन बनी चौपाल ।

किस्से बाबा के सभी , बन बैठे बैताल ।।10

बँधा मुकददर गाँव का ,पटवारी के हाथ।

दारू -मुर्गे के बिना तनिक न सुनता बात।।11


वासन्ती दोहे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


दोहे


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



वसन्त द्वारे है खडा़ ,मधुर मधुर मुस्कान ।

साँसों में सौरभ घुला ,जग भर से अनजान ।।1

चिहुँक रही सुनसान में ,सुधियों की हर डाल ।

भूल न पाया आज तक , अधर छुअन वह भाल ।।2

जगा चाँद है देर तक ,आज नदी के कूल ।

लगता फिर से गड़ गया उर में तीखा शूल ।।3

मौसम बना बहेलिया ,जीना- मरना खेल ।।

घायल पाखी हो गए ,ऐसी लगी गुलेल ।।4

अँजुरी खाली रह गई ,बिखर गये सब फूल ।

उनके बिन मधुमास में ,उपवन लगते शूल।।5


………………………………………………

मैं घर लौटा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



बहुत मैं घूमा पर्वत ­पर्वत

नदी घाट पार खूब नहाया

और पिया तीरथ का पानी

आग नहीं मन की बुझ पाई।


बहुत नवाया मैंने माथा

मन्दिर और मज़ारों पर भी

खोज न पाया अपने मन का

चैन जरा भी ।

रेगिस्तानों में चलकर के

दूर गया मैं सूनेपन तक

आग मिली बस आग मिली थी।

मैं लौटा सब फेंक ­फाँककर

भगवा चोला और कमंडल

और खोजने की बेचैनी

उन सबको जो नहीं पास थे

पहले मेरे।

मैं घर लौटा।

आकर बैठा था आँगन में

टूटी खटिया पेड़ नीम का

बिटिया आई दौड़ी­ दौड़ी

दुबकी गोदी में वह आकर

पत्नी आई सहज भाव से

और छुआ मुझको धीरे से।

बरस पड़ी जैसे शीतलता

और चाँदनी भीनी­ भीनी

मेरे छोटे से आँगन में ।

मैं मूरख था ,

अब तक भटका

बाहर­बाहर ।

झाँक न पाया था भीतर मैं

पावन मन्दिर , तीर्थ जहाँ था

और जहाँ थे ऊँचे पर्वत

शीतल ­शीतल ,

और भावना की नदियाँ थीं

कल­कल करती

छल ­छल बहती।

झोंके खुशबू के

भरे हुए थे , बात ­बात में।

जुड़े हुए थे हम सब ऐसे

नाखून जुड़े हो

साथ मांस के
--Rdkamboj १२:४८, १२ जून २००७ (UTC) युगों ­युगों से ।




बचकर रहना / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~




चारों ओर रेंगते विषधर
बचकर रहना।

इनसे बढ़कर मानुष का डर
बचकर रहना।।

भले लोग ही बसे यहाँ हैं
इन भवनों में।

रोज फेंकते हैं ये पत्थर
बचकर रहना।।

जहर बुझी है इनकी वाणी
कपट कवच है।

छल प्रपंच है इनका बिस्तर
बचकर रहना।।

कदम कदम पर फूलों का
भ्रम फैलाते हैं ।

छुपे हुए फूलों में नश्तर
बचकर रहना॥

चन्दन- वन को राख किया है
इन लोगों ने।

अब आए ये वेश बदलकर
बचकर रहना॥

अंगारों पर चलकर हमने
उम्र बिताई ।

ढूँढ, न पाए हम अपना घर
बचकर रहना॥


ज़रूरी है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~





जीवन के लिए जरूरी है


थोडी़ - सी छाँव

थोडी़- सी धूप।

थोडी़ - सा प्यार

थोडी़- सा रूप।

जीवन के लिए जरूरी है…


थोडा़ तकरार

थोड़ी मनुहार ।

थोड़े -से शूल

अँजुरीभर फूल ।

जीवन के लिए जरूरी है…


दो चार आँसू

थोड़ी मुस्कान ।

थोड़ी - सा दर्द

थोड़े- से गान ।

जीवन के लिए जरूरी है…


उजली- सी भोर

सतरंगी शाम ।

हाथों को काम

तन को आराम ।

जीवन के लिए जरूरी है…


आँगन के पार

खुला हो द्वार ।

अनाम पदचाप

तनिक इन्तजार ।

जीवन के लिए जरूरी है …


निन्दा की धूल

उड़ा रहे मीत ।

कभी ­ कभी हार

कभी ­ कभी जीत ।

>>>>>>>>>>>>>>>>>>

बहता जल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


हम तो बहता जल नदिया का

अपनी यही कहानी बाबा।

ठोकर खाना उठना गिरना

अपनी कथा पुरानी बाबा।

कब भोर हुई कब साँझ हुई

आई कहाँ जवानी बाबा।

तीरथ हो या नदी घाट पर

हम तो केवल पानी बाबा।

जो भी पाया, वही लुटाया

ऐसे औघड, दानी बाबा।

अपने किस्से भूख­ प्यास के

कहीं न राजा रानी बाबा।

घाव पीठ पर , मन पर अनगिन

हमको मिली निशानी बाबा।


अधर पर मुस्कान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये।

आँधियाँ बरसात या कि बर्फ़ हो

सो गये फुटपाथ पर ही घर लिये।

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये।

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये ।

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं सामने पत्थर लिये ।


तिनका-तिनका / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~




तिनका ­तिनका लाकर चिड़िया

रचती है आवास नया ।

इसी तरह से रच जाता है

सर्जन का आकाश नया ।

मानव और दानव में यूँ तो

भेद नजर नहीं आएगा ।

एक पोंछता बहते आँसू

जीभर एक रुलाएगा ।

रचने से ही आ पाता है

जीवन में विश्वास नया ।

कुछ तो इस धरती पर केवल

खून बहाने आते हैं ।

आग बिछाते हैं राहों पर

फिर खुद भी जल जाते हैं ।

जो होते खुद मिटने वाले

वे रचते इतिहास नया ।

मंत्र नाश का पढ़ा करें कुछ

द्वार -द्वार पर जा करके ।

फूल खिलाने वाले रहते

घर­ घर फूल खिला करके ।

रहता सदा इन्हीं के दम पर

सुरभि ­ सरोवर पास नया ।


जंगल-जंगल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



जंगल­ जंगल आग लगी है

घिरे बीच में हम ।

झुलस गया है रोयाँ ­रोयाँ

हुई न आँखें नम ।

रोते भी तो हम क्यों रोते

दर्द समझता कौन ।

कुछ हँसते ,कुछ नज़र चुराते

कुछ रह जाते मौन ।

आग लगाने वाली दुनिया

आग बुझाते कम ।

अच्छे का अंजाम बुरा है

जाने हम यह बात ।

करें बुरा हम बोलो कैसे

दिल कब देता साथ ।

आशीर्वाद करें क्या लेकर

शापित जनम­ जनम ।

रेगिस्तानों में निकल पड़े हम

प्यास बुझाने को ।

कपटी साथी आए दूर तक

राह बताने को ।

हमने हँस ­हँस झेले तीखे

चुभते तीर विषम ।


अंधकार ये कैसा छाया / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



अंधकार ये कैसा छाया

सूरज भी रह गया सहमकर ।

सिंहासन पर रावण बैठा

फिर से राम चले वन पथ पर ।

लोग कपट के महलों में रह

सारी उमर बिता देते हैं ।

शिकन नहीं आती माथे पर

छाती और फुला लेते हैं ।

कौर लूटते हैं भूखों का

फिर भी चलते हैं इतराकर ।।

दरबारों में हाजि़र होकर

गीत नहीं हम गाने वाले ।

चरण चूमना नहीं है आदत

ना हम शीश झुकाने वाले ।

मेहनत की सूखी रोटी भी

हमने खाई थी गा ­गाकर ।।

दया नहीं है जिनके मन में

उनसे अपना जुड़े न नाता ।

चाहे सेठ मुनि ­ज्ञानी हो

फूटी आँख न हमें सुहाता ।

ठोकर खाकर गिरते पड़ते

पथ पर बढ़ते रहे सँभलकर।।


गोरखधन्धा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


मीठा - मीठा तुम बोले थे

मन में कपट कटारी थी ।

मूरख बनकर रहे देखते

आदत यही हमारी थी ।

पूँछ हिलाना ,दाँत दिखाना

मर्म सभी पहचाने हम ।

कब काटोगे तुम चुपके से

सारी बाते जानें हम ।

चतुर सुजान समझते खुद को

बहुत बड़ी लाचारी थी ।

मूरख बनकर समझ सके हम

दुनिया का गोरखधन्धा ।

अपनेपन की कपट ओढ़नी

है बहेलिये का फन्दा ।

फन्दे में फँसकर उठी हँसी

सौ खुशियों पर भारी थी ।

न लेकर आये न ले जाना

कैसा शोक मनाएँ हम ।

नहीं बटोरे काँकर ­पाथर

ताला कहाँ लगाएँ हम ।

तुम लुटकरके रातों जागे

हम पर छाई खुमारी थी ।


दौलत और नींद / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


दौलत के नशे में नींद नहीं आती ।

फकी़र को लुटने का डर नहीं होता ॥

फुटपाथ पर हमको सोने दे हुज़ूर ।

मुफ़लिसों का कहीं भी घर नहीं होता ।।

उपवन मत जलाओ कुछ शूल के लिए ।

यों कोई शहर बेहतर नहीं होता ।।

काबुल में खिलें या काशी में मह़कें ।

फूल के हाथ में खंज़र नहीं होता ॥

नाग पालकर वे चाहते रहे अमन ।

ज़िन्दगी का इलाज ज़हर नहीं होता ॥

हो चुके हैं लोग अब इतने बेहया ।

चीख- पुकार का भी असर नहीं होता ॥



बंजारे हम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


जनम ­ जनम के बंजारे हम

बस्ती बाँध न पाएगी ।

अपना डेरा वहीं लगेगा

शाम जहाँ हो जाएगी ।

जो भी हमको मिला राह में

बोल प्यार के बोल दिये ।

कुछ भी नहीं छुपाया दिल में

दरवाजे सब खोल दिये ।

निश्छल रहना बहते जाना

नदी जहाँ तक जाएगी ।

ख्वाब नहीं महलों के देखे

चट्टानों पर सोए हम ।

फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को

रो रो नयन भिगोएँ हम ।

मस्ती अपना हाथ पकड़ कर

मंजिल तक ले जाएगी ।


वश में है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~




तुमने फूल खिलाए

ताकि खुशबू बिखरे

हथेलियों मे रंग रचें ।

तुमने पत्थर तराशे

ताकि प्रतिष्ठित कर सको

सबके दिल में एक देवता ।

तुमने पहाड़ तोड़कर

बनाई एक पगडण्डी

ताकि लोग मीठी झील तक

जा सकें

नीर का स्वाद चखें

प्यास बुझा सकें ।

तुमने सूरज से माँगा उजाला

और जड़ दिया एक चुम्बन

कि हर बचपन खिलखिला सके

यह तुम्हारे वश में है ।

लोग काँटे उगाएँगे

रास्ते मे बिछाएँगे

लहूलुहान कदमों को देखकर

मुस्कराएँगे ।

पत्थर उछालेंगे

अपनी कुत्सित भावनाओं के

उन्हें ही रात दिन

दिल में बिछाकर

कारागार बनाएँगे ।

पहाड़ को तोड़ेंगे

और एक पगडण्डी

पाताल से जोड़ेंगे

कि जो जाएँ

वापस न आएँ।

सूरज से माँगेगे आग

और किसी का घर जलाएँगे ।

यह उनके वश में है ।

यह उनकी प्रवृत्ति है

वह तुम्हारे वश में है ।


रिश्तों की आँच / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


बुझ जाती है

दिए की लौ

अलाव की आग

फिर भी

जिन्दा रहती है

कहीं न कहीं

रिश्तों की आँच

मद्धिम ही सही ।

सूख जाती है

बरसाती नदी

अलसाया-सा

चट्टानों से निकला

पतला सा– सोता जल का

कहीं न कहीं ,फिर भी

रह जाता है पानी

कुछ पानीदार लोगों की

चमकती आँखों में।

लू के थपेड़ों में

सूख जाते हैं

हरे भरे उपवन

सिर उठाती कलियाँ

बच जाती है

फिर भी

थोडी़ बहुत खुशबू

कुछ लोगों की साँसों में

दिल से अँखुआई

बातों में ।

इसी तरह

ज़िन्दा रहते हैं फिर भी

आँच और पानी

जीवन की खुशबू ।


>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>

मुदित नया साल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~


ओस भीगी धरा

किरनों के पाँव

उतरा है सूरज

अपने इस गाँव ।

पत्तों से छनकर

आई है धूप

निखरा है प्यारा

धरती का रूप ।

शरमाती कलियाँ

मुस्काते फूल

बाट में बिछाए

घास के दुकूल ।

तरुवर पर पाखी

देते हैं ताल

द्वार पर खड़ा है

मुदित नया साल ।


बयान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


{{KKGlobal}


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


कविताएँ


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’


~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~



मैं बार– बार आऊँगा

लेकर फूलों का हार

तुम्हारे द्वार ।


जितने भी काँटे पथ में

बिखरे हुए पाऊँगा

आने से पहले मैं

जरूर हटाऊँगा ।


मैं बार –बार आऊँगा ।

बहुत हैं अँधेरे जग में

आँगन में देहरी पर

जहाँ तक हो सकेगा

दीपक जलाऊँगा ।


मैं बार– बार आऊँगा ।

मुस्कानों की खुशबू को

बिखेर हर चेहरे पर

सूरज सी चमक सदा

हर बार लाऊँगा

मैं बार– बार आऊँगा ।