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शगुन / भरत ओला
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जेठ जवानी पर है
तपत और लू
उगने लगी सी है
ठूंठ सी
डूंड उपड़ने लगे है
खंख से भर गया है
समूचा आकाश
धोरे की बरक
पसर गई है
राह पर
समुद्र दूर नहीं
पूर्ण होगें
मरूधरा के सोलह श्रृगांर