भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सिलता रहा उम्र भर चादर / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 25 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान }} {{KKCatNavgeet}} <poem> सिलता रह…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिलता रहा उम्र भर चादर
सिलता रहा उम्र भर चादर किन्तु नहीं सिल पाया
यह भी नहीं समझ पाया मैं क्या खेाया क्या पाया
कभी चला मैं चाल दुरंगी
कभी चला बेढंगी
कभी मनाते मौज कटे दिन
कभी झेलते तंगी
ढोेता रहा उमर भर बोझा तिल भर चैन न आया
छांव न थोड़ी मिली कहीं भी जहां बैठ सुस्ताया
कभी सत्य की पढ़ी कथायें
कभी झूंठ के किस्से
कभी लगायी गांठ हवा में
कभी किये दो हिस्से
मथता रहा उमर भर दोहनी समझ न पाय माया
जोड़ जोड़ धन थका नहीं पर अंत काम कुछ आया
रीती की रीती गागर है
नहीं उसे भर पाया
निरखा किया बाट पनघट की
प्यास नहीं हर पाया
चलता रहा परिधि के ऊपर शिथिल हो गयी काया
कालिख लगती रही उमर भर नहीं छुड़ा मैं पाया
सिलता रहा उम्र भर चादर किन्तु नहीं सिल पाया
यह भी नहीं समझ पाया मैं क्या खेाया क्या पाया