भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पराजित हो गये / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो पराजित हो गए फिर
कँपकपाते दिन

ढेालकों की थाप पर
गाने लगा फागुन
बज उठी मंजीर खँझरी
पर सुहानी धुन

आ गये मिरदंग ढफ
झाँझें बजाते दिन
  
खिल उठे फिर ढाक, सेमल
के अरूण हो गात
आ गए श्रीहीन तरूओं
पर सुकेामल पात
  
छू गए मन केा बसन्ती
गुनगुनाते दिन

बोल मुखरित हो उठे
फिर नेह सरगम के
कसमसाने लग गए
जड़-बन्ध संयम के

आ गए फिर प्यार का
मधुरस लुटाते दिन