याद तुम्हारी आती है / प्रतिभा सक्सेना
जब पलकें झपका कर नभ में तारे हँसते,
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !
जब झूम-झूम उठते फूलों के दल के दल ,
मधुमय वसन्तश्री राग लुटाती आती है
गुन-गुन के गुंजन में वन की डाली-दाली
,सौरभ मधु से मधुपों की प्यास मिटाती है ,
अमराई की डालों से उठती कूक पिकी की आकुलता
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !
जब किसी द्वार पर अपनी झोली फैला कर ,
कोई अंधा भिक्षुक जिसका घर-बार नहीं ,
गा उठता कोई करुण मधुर संगीत
कि दाता जो देदे वह होगा अस्वीकार नहीं !
अभिमानी मन का मान डोल उठता है जब ,
तब मेरे मन को याद तुम्हारी आती है !
22.
यात्रा -
पुकार आ रही है !
आसार बन रहे हैं एक नई यात्रा के !
आहट सुन कसक उठी भीतर से ;
हर यात्रा की पूर्व संध्या होता है ऐसा !
सीमित आत्म से निकल
विराट् में प्रवेश करने का द्वार -
यात्रा !
तैयार हो लूँ !
जहाँ ,जिस तरह रही ,
घेरे से बाहर निकल आऊँ
सारा ताम-झाम छोड़ !
बिदा ,प्रिय स्मृतियों ,आशाओं-इच्छाओं ,संबंधों ,
स्वीकार लो प्रणाम मेरा ,
कि आगे निकल सकूँ,
निरी एकाकी ,निरुद्विग्न और निरपेक्ष !
कि नये दृष्य ,नये अनुभव,
मुक्त चेतना में समा सकें ,
कि एकदम अनाम अनुभूतियाँ
अजाने संवेदन ग्रहण करने को
मन के स्तर खुल जायें !
रह जाऊँ एकदम
खाली स्लेट,
कि होनेवाले अंकन सुस्पष्ट रहें !