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ओ पतझर की रात! / आलोक श्रीवास्तव-२

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लौट आओ
ओ, पतझर की रात
लौट आओ !

वीरान सड़क से गुज़रती
यह लड़्की
जो न चांद है, न सपना
तुम्हारे कंधों पर सिर रख कर रोना चाहती है

लौट आओ, ओ रात!
क्योंकि बहुत दिनों से रोयी नहीं यह लड़्की
तनी रही दुख के आगे
जानती रही हकीकत सबल चट्टानी कंधों की
उसने सिर्फ वही स्वप्न देखे
जिनके लिए वह लड़ सकी
अडिग रही और परिश्रमी
संपत्ति के छलावों को ठुकराती
वह झुलसते मौसमॊं से
गुज़री अपने नगर की सड़कों से
नदी के सूने वीरान तट से

ओ पतझर की रात!
तुम्हारे थरथराते चाँद वाले तालों के निर्जन में
यह स्वप्नदर्शी लड़की रोना चाहती है
न, दुख से नहीं, व्यथा, संताप से नहीं
ओ दुखी रात!
तुम्हारी उदासी की गहनता में
कुछ टूटता है उसके भीतर
यादे हैं, किसी के बोल हैं,
कोई चेहरा है

कितना कुछ छूट गया है पीछे
ये जीवन के कैसे रहस्य हैं?

ये पल हैं उसकी उदासी के
उदास है धरती
सूने मैदानों पर छाया है विराग
थके चरवाहों का गीत गूंजता है
जंगलों के पार
ओ रात!
ठहरो उसे दिलासा देने को
उसे अपना कंधा दो
उसे रचने हैं अभी
किरनों से दीप्त कई सवेरे!