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रह रह बढती जाती पीड़ा,
रह-रह बढता वेदन ।
रह रह होता करूण-करूण स्वर
रह रह भरते लोचन
स्वप्न लोक में जहाँ घूमता
तन विहीन मन केवल
जाने मैं कैसे आ पहुँचा
किसकी वाणी के बल