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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 5

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नगर निसान बर बाजैं ब्योम दुंदुभीं

बिमान चढ़ि गान कैके सुरनारि नाचहीं।

 जयति जय तिहुँ पुर जयमाल राम उर

बरषैं सुमन सुर रूरे रूप राचहीं।

जनकको पनु जयो, सबको भावतो भयो

 तुलसी मुदित रोम-रोम मोद माचहीं।

सावँरो किसोर गोरी सोभापर तृन तोरी

जोरी जियेा जुग जुग जुवती-जन जाचहीं।14।

 भले भूप कहत भलें भदेस भूपनि सों

लोक लखि बोलिये पुनीत रीति मारिषी।

जगदंबा जानकी जगतपितु रामचंद्र,
 
जानि जियँ जोेहौ जो न लागै मुँह कारिखी।।

देखे हैं अनेक ब्याह, सुने हैं पुरान बेद

बूझे हैं सुजान साधु नर-नारि पारिखीं।

 ऐसे सम समधी समाज न बिराजमान,
 
रामु -से न बर दुलही न सिय-सारिखी।15।


बानी बिधि गौरी हर सेसहूँ गनेस कही,

सही भरी लोमस भुसुंडि बहुबारिषो।

चारिदस भुवन निहारि नर-नारि सब

 नारदसों परदा न नारदु सो पारिखो।

तिन्ह कही जगमें जगमगति जोरी एक

दूजो को कहैया औ सुनैया चष चारिखो।

रमा रमारमन सुजान हनुमान कही

सीय-सी न तीय न पुरूष राम-सरीखो।16।



दूलह श्री रधुनाथु बने दुलहीं सिय सुंदर मंदिर माहीं।

गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।।

रामको रूप निहारति जानकी कंकनके नगकी परछााहीं।

यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही , पलकें टारत नाहीं।17।