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आवाज दूँ भी तो किसको / आलोक श्रीवास्तव-२

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अब तुमसे मिलना नहीं होगा कभी
कभीं नहीं देख पाऊंगा
गदराये शरीर की भंगिमाओं में
अजंता की प्रतिकृतियाँ

बेतहाशा भागते ट्रैफिक के बीच
उड़ता दुपट्टा संभालता
एक साया नहीं होगा साथ

ख़ामोश लहरें होंगी
सागर पर दमकता चांद होगा
और तुम्हारा एक उखड़ा-उखड़ा-सा ख़्याल

कितने सारे गुजरे दिनों की याद होगी
अतीत की तुम्हारी कितनी छवियां ...
गहरी-सी एक टीस होगी

तुम क्यों लौट गई उन द्वीपों में
जहां तक पहुंचने का मेरे पास कोई रास्ता नहीं
मेरी आवाज़ भी तुम तक नहीं पहुंच पाएगी

भूलना-भुलाना किसी को
बहुत मुश्किल नहीं होता
पर
मैंने तो तुम्हें प्यार करना चाहा था
तुम्हारे अंग-अंग को दुलराने की
कैसी गहरी अदम्य कामना थी

जिंदगी से उद्भूत कैसा भव्य स्वप्न था

तुम्हारे अस्तित्व में और
उसके सौंदर्य में
कैसा अटल यक़ीन था

तुम्हारे होंठ, पलक, बाहों से शुरु होता यह स्वप्न
जाने किन-किन हक़ीकतों के पांव
खड़ा हो रहा था

पर
पता नहीं कौन-से रास्ते तुम्हें कहां ले गए

मैं आवाज़ दूं भी तो किसको ?

जिसकी छाया तक फिसलती गई
उसे कहां तलाशूं ?