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अब भी है यह शहर / आलोक श्रीवास्तव-२

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शाम थी उदास
मेरे चारो ओर घिरती हुई

और थी तुम्हारी याद

ऊंचे बुर्ज थे
गोमती में थरथराता शाही पुल था
और दोपहर की गूंजती हुई अजान

बचपन था इस उदासी में
अपनी मजबूरियां थीं
और कोमलता के बिंब सरीखा
एक लड़की का चेहरा था

यह तुम्हारा चेहरा
समय की न जाने किन दूरियों पर
मेरी हर पहुंच के परे
रोज़ थोड़ा और बेगाना
रोज़ थोड़ा और धूमिल पड़ता
खोता गया है

और अब भी है यहां
तेज़ रोशनी में डूबी एक सड़क
जिसे शरद की एक रात मैंने
तुम्हारे बगल में चलते पार किया था
यह ऊंचा छतनार पेड़
जिसके नीचे वासंती साड़ी पहने तुम मेरे साथ
बस के इंतजार में खड़ी थीं

अब भी यह शहर
समंदर की पछाड़ खाती लहरें
ट्रेन की आख़िरी सीटी से
गूंजता आधी रात का सन्नाटा

कितनी सारी जगहों पर
तुम्हारी कितनी सारी यादें हैं

क्या मैं किसी दिन
यह शहर छोड़ पाऊंगा ?