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प्रेम की विदा / आलोक श्रीवास्तव-२

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कहते हैं
बहुत कठिन होती है
प्रेम की विदा
बहुत असह्य

एक तारा आकाश में
थोड़ी दूर चल कर कहीं खो गया
नीचे नदी में भी
डूब गया वह

बस ऐसा ही था
प्रेम का जाना
बहुत पोशीदा
बहुत आहिस्ता

सुबह उतना ही नीला था आकाश
नदी वैसी ही मंथर
कूलों पर
हरी घास
दिगंत पर
एक पांखी!