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पार्वती-मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 3

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।।श्रीहरि।।
    
( पार्वती-मंगल पृष्ठ 3)

मोरेहुँ मन अस आव मिलिहिं बरू बाउर।
लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर।17।

सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपतिं।
गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति।18।

नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु।
 दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु।19।

 अवसि होइ सिधि साहस फलइ सुसाधन।
कोटि कलप तरू सरिस संभु अवराधन।20।

तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं।
कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं।।21

कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए।
अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए।22।

सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि।
बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहिं। 23।

जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि ।
अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि।24।

भ्ेावहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हरचरन की।
गौरव सनेह सकेाच सेवा जाइ केहि बिधि बरन की।ं
 गुन रूप जोबन सींव संुदरि निरखि छोभ न हर हिएँ।
 ते धीर अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ।3।

( इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 3)