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अपनी-अपनी सलीब / वाज़दा ख़ान

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अनगढ़ ज़िन्दगी में उकेरी
भावनाओं की प्रस्तरशिला, बैठी है
भीतर ही कहीं छुपकर

जो समय की छेनी-हथौड़ी से
गढ़कर न जाने कितनी
अभिलाषाओं को अमूर्त्त
आकार देती है

और ये अमूर्त्त आकार
देह और मन की शिराओं में भीड़ बन
गड्डमड्ड होते, एक दूसरे से
टकराते, प्रहार करते

मूर्त्त बनने की चाह में अपनी
राहों से भटक जाना
चाहते हैं, यदि वे
अनजाने / अनचीह्नी पगडंडियों पर
भटक गए तो फिर उन्हें
सहेज पाना मुश्किल होगा

मगर इन अमूर्त्त
आकारों को मूर्त्त रूप में
ढालना, एक
आभासित होता सपना
शायद अभी भी
अपने-अपने सलीब उठाए
जीवित है ।