भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दीमकें / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:29, 21 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वाज़दा ख़ान |संग्रह=जिस तरह घुलती है काया / वाज़…)
बहुत तेज़ी से हमला करती हैं
दीमकें
ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं देतीं
मगर भीतर ही भीतर खोखला
कर देती हैं इनसान को
किसी दिन हवा के हल्के
झोंके से बालू के टीले-सा
भरभराकर गिर पड़ता है
फिर कभी न उठ पाने के लिए ।