भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम हमेशा अजनबी रहे / आलोक श्रीवास्तव-२

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:06, 25 मार्च 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम हमेशा अजनबी रहे
हालांकि मैं तुम्हें प्यार करता था
रास्तों पर यदा-कदा
डरते हुए कई बार हल्के से तुम्हारे कंधे भी छुए
कविताएं लिखीं तुम्हारे लिए -
जिनमें शब्द मानो इस दुनिया से नहीं
किसी और ज़्यादा तार्किक और उतनी ही स्वप्नमयी
किसी और दुनिया से चले आते थे

जब वे कविताएं लिखीं तो सोचा,
महज एक आदर्श की कल्पना
किसी भावना का भव्य पर अवास्तविक लोक हैं वे
आज अनुभव से जानता हूं
वे कविताएं सच्ची थीं-
ज़्यादा वस्तुनिष्ठ, ज़्यादा यथार्थ
यह दुनिया कहीं ग़लत है

तुम कभीं नहीं समझ पाईं मेरा कोई भी शब्द
मैं ऐसा सोचता था
पर शायद सच तो यह था कि
तुम उन शब्दों को समझने के बावजूद
मुझसे प्यार नहीं कर पाई
जबकि मैं तुम्हें आज भी भुला नहीं सका हूं

आवेग और भावना से बनी
वह दुनिया अब कहीं नहीं है

तुम अब नहीं हो किसी स्वप्न का प्रतीक

तुम्हारे साथ मैंने वसंत को लौटते देखा था
समय को नए अर्थों से भरते जाना था

तुम्हें सिर्फ़ देखने भर की कैसी बेचैनी उन दिनों होती थी
पर अब महीनों-महीनों बाद
इत्तफाक़ से हमारा मिलना होता है

कितना मुश्किल है यह यक़ीन करना
कि तुम एक स्वप्न-कथा की नायिका थीं

रात में समुद्र की लहरों का रेला
कगारों पर वैसे ही टूटता है
सूनसान हवाएं पानी की सतह को छूती
मीलों से लौटती हैं
दूर खड़े पोतों के पीछे से चांद की पीली आभा
धरती पर उतरती है

इस सब के बीच से गुज़रते
बरसों पहले का कोई दिन याद आता है

तुम सिर्फ़ एक फोन की दूरी पर हो
पर यह दूरी यथार्थ है
हमारी दुनियाएं इतनी अलग हैं
यह पूरी शिद्दत से अब जानता हूं
समुद्र की खारी हवाओं के बीच
उड़ती लटों वाली एक लड़की को जिसने देखा था
कई रास्तों पर, धूसर रातों में
जिसके पार्श्व में तुमने सड़कें और चौराहे
पार किए थे
बसों में साथ गुज़री थीं
मई के एक दिन जिसके घर तुम आईं थीं
वह शख़्स कहां है ?

लहरों में किसी का नाम नहीं
हवा पर किसी का पता नहीं
निचाट रेत
गुंजान रास्ते

यह कैसी दुनिया है ?

एक दुनिया जिसमें तुम हो
समुद्र की उत्तल लहरें, विंध्य के सूने पहाड़
पलाश की रंगत में डूबा एक वन, एक पगडंडी, एक नगर
ट्रेन की आवाज़ से टूटता आधी रात का सन्नाटा
और बारिश की तेज़ झड़ी
वसंत का हौले पांव आना
और चैत्र की हवाएं हैं

रेत के उठते बगूलों के पीछे
एक और दुनिया है जो ग़लत है
जिसमेम तुम नहीं हो
पर जो फिर भी खूबसूरत है
और जिसकी सबसे बड़ी खूबी है कि
वह मौजूद है चारों ओर हवा, धूप, पानी
यहां तक कि
सपना भी बन कर
जि हर क्षण बदल रही है
जिसमें उस पहली दुनिया की
परछाईयों की आवाजाही है
जिसके सुख कुछ और हैं
दुख भी कुछ और !