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मैं और तुम / मीना अग्रवाल

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मैं, मैं हूँ
और तुम, तुम हो
तुम्हारा मन
बँधा है तुमसे,
और मेरा मन तो
बँधा है सबसे !
तुम गुनगुनाते हो
तो सुनती हूँ
केवल मैं, पर मेरे
मन के घुँघरू
जब बज उठते हैं
अनायास
उनकी रुनझुन
सुनाई देती है
दूर,बहुत दूर
अंतर में,
मन पाता है सहारा
और तन को मिलता है
विश्वास !
उस ध्वनि में
छिपा है
जीवन का मधुरिम मधुमास,
पर नहीं सुनाई देती
किसी को वह आवाज़
क्योंकि सभी ने
ओढ़ लिया है
कठोरता का लिबास !